षट्कर्म क्या है ?
षट्कर्म शब्द दो शब्दों ‘षट्’ और ‘कर्म’ से मिलकर बना है। ‘षट्’ का अर्थ है छह और ‘कर्म’ का अर्थ है कार्य। आयुर्वेद में ‘कर्म’ का अर्थ होता है शोधन जिसे आयुर्वेदिक पद्धति में पंचकर्म चिकित्सा कहते हैं। षट्कर्म में शुद्धिकरण क्रियाएं शरीर को भीतर से स्वच्छ एवं साफ करने और योग साधक को उच्च योग क्रियाएं करने के लिए तैयार करने हेतु बनाई गई हैं। षट्कर्म शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य दोनों के लिए एक उम्दा योगाभ्यास है। षट्कर्म शरीर के विषाक्त द्रव्यों को बाहर निकालकर उसकी अन्दरूनी सफाई करता है। इससे शरीर स्वस्थ और निरोगी रहता है। महर्षि घेरण्ड ने छः षट्कर्मों को घेरण्ड संहिता में योग के पहले अंग के रूप में वर्णित किया है । उनका मानना है कि बिना षट्कर्म के अभ्यास के कोई भी साधक योग मार्ग में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता । सबसे पहले शरीर की शुद्धि आवश्यक है । बिना शरीर की शुद्धि के योग के अन्य अंगों के पालन में साधक को आगे बढ़ने में कठिनाई होती है । इसलिए महर्षि घेरण्ड ने षट्कर्म को योग के पहले अंग के रूप में स्वीकार किया है । षट्कर्म हठयोग साधना का अति विशिष्ट अंग है । षट्कर्मों का अभ्यास करने से केवल शारीरिक शुद्धि ही नहीं बल्कि मानसिक शुद्धि भी होती है । शारीरिक व मानसिक शुद्धि होने से हम आध्यात्मिक मार्ग पर आसानी से आगे बढ़ पाते हैं।
महर्षि घेरण्ड के अनुसार षट्कर्म निम्न हैं –
1.धौति
2. वस्ति
3. नेति
4. नौलि /लौलिकी
5. त्राटक
6. कपालभाति ।
षट्कर्म :-
वैसे तो षट्कर्म मुख्य रूप से छः होते हैं । लेकिन महर्षि घेरण्ड ने उनके अलग – अलग विभाग किये हैं । जिनका वर्णन इस प्रकार है –
- धौति:- धौति के मुख्य चार भाग माने गए हैं।और आगे उनके भागों के भी विभाग किये जाने से उनकी कुल संख्या 12 हो जाती है ।
धौति के चार प्रकार :- धौति (कुंजल एवं वस्त्रधौति) क्रिया संपूर्ण पाचन का शोधन करती है और साथ ही साथ यह अतिरिक्त पित्त, कफ, विष को दूर करती है तथा शरीर के प्राकृतिक संतुलन को वापस लाती है।
- अन्तर्धौति
- दन्त धौति
- हृद्धधौति
- मूलशोधन
1.अन्त र्धौति के प्रकार :-
1. वातसार धौति 2.वारिसार धौति 3.वह्निसार/अग्निसार धौति 4.बहिष्कृत धौति ।
2.दन्तधौति के प्रकार :-
1. दन्तमूल धौति 2.जिह्वाशोधन धौति 3.कर्णरन्ध्र धौति 4.कपालरन्ध्र धौति ।
3.हृद्धधौति के प्रकार :-
1. दण्ड धौति 2.वमन धौति 3.वस्त्र धौति । 4.मूलशोधन :- मूलशोधन धौति के अन्य कोई भाग नहीं किए गए हैं ।
- वस्ति :- वस्ति, शंखप्रक्षालन तथा मूलशोधनसे आंतें पूरी तरह स्वच्छ हो जाती हैं, पुराना मल एवं कृमि दूर हो जाते हैं और पाचन विकारों का उपचार होता है।वस्ति के दो प्रकार होते हैं –
1.जल वस्ति। 2.स्थल वस्ति ।
- नेति :- नियमित रूप सेनेति क्रियाकरने पर कान, नासिका एवं कंठ क्षेत्र से गंदगी निकालने की प्रणाली ठीक से काम करती है तथा यह सर्दी एवं कफ, एलर्जिक , ज्वर, टॉन्सिल आदि दूर करने में सहायक होती है। इससे अवसाद, माइग्रेन, मिर्गी एवं उन्माद में यह लाभदायक होती है।
नेति क्रिया के दो भाग किये गए हैं –
1. जलनेति
2. सूत्रनेति ।
- नौलि क्रिया :- नौली क्रियाउदर की पेशियों, तंत्रिकाओं, आंतों, प्रजनन, उत्सर्जन एवं मूत्र संबंधी अंगों को ठीक करती है। अपच, अम्लता, वायु विकार, अवसाद एवं भावनात्मक समस्याओं से ग्रस्त व्यक्ति के लिए लाभदायक है।
लौलिकी अर्थात नौलि क्रिया के तीन भाग माने जाते हैं –
1. मध्य नौलि 2. वाम नौलि 3. दक्षिण नौलि ।
- त्राटक :- त्राटक नेत्रोंकी पेशियों, एकाग्रता तथा मेमोरी के लिए लाभप्रद होती है। इसका सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव मस्तिष्क पर होता है। त्राटक के अन्य विभाग नहीं किये गए हैं ।
- कपालभाति :- बीमारियों से दूर रखने के लिए रामबाण माना जाता है। यह बलगम, पित्त एवं जल जनित रोगों को नष्ट करती है। यह सिर का शोधन करती है और फेफड़ों एवं कोशिकाओं से सामान्य श्वसन क्रिया की तुलना में अधिक कार्बन डाईऑक्साइड निकालती है। कहा जाता है कि कपालभाति प्रायः हर रोगों का इलाज है।
कपालभाति के तीन भाग होते हैं – 1.वातक्रम कपालभाति 2. व्युत्क्रम कपालभाति 3. शीतक्रम कपालभाति ।
षट्कर्म के फायदे
षट्कर्म के बहुत सारे लाभ हैं। इसके कुछ महत्वपूर्ण फायदे ।
- हठयोग के अनुसार शुद्धि क्रिया योग शरीर में एकत्र हुए विकारों, अशुद्धियों एवं विषैले तत्वों को दूर कर शरीर को भीतर से स्वच्छ करती है।
- उच्चतर योग साधना की दिशा में यह एक पहला चरण है।
- शुद्धिकरण योग शरीर, मस्तिष्क एवं चेतना पर पूर्ण नियंत्रण का भास देता है।
- शोधन क्रियाएं स्वच्छ करने की क्रियाओं और तकनीकों की बात करता है, जिनसे शरीर भीतर से स्वच्छ होता है।
- रोगों, विकारों तथा अशुद्धियों को शरीर से दूर करने के लिए पूरे शरीर के पूर्ण शुद्धिकरण की प्रक्रिया आवश्यक है। जहाँ षट्कर्म अहम भूमिका निभाता है।
- जब शरीर में अत्यधिक विकार हो अथवा शरीर में वात, पित्त तथा कफ का असंतुलन हो तो प्राणायाम और योगासन से पूर्व षट्कर्म करना चाहिए।
- प्राणायाम साधना आरंभ करने से पूर्व सबसे पहले नाड़ी शुद्ध होनी चाहिए जो षट्कर्म दुआरा करनी चाहिए।
- शुद्धि करण से मस्तिष्क को शांत रखने एवं बेचैनी, सुस्ती, नकारात्मक विचारों तथा भावनाओं को दूर करने में सहायता मिलती है। जब मस्तिष्क शांत एवं सतर्क होता है तो जागरुकता का स्तर सरलता से बढ़ाया जा सकता है।
- षट्कर्म तनाव से लड़ने एवं स्वास्थ्य सुधारने में सहायता करते हैं। वे विश्राम प्रदान कर तनाव कम करते हैं।
- षट्कर्म की छह प्रमुख क्रियाओं में धौति (कुंजल एवं वस्त्रधौति) क्रिया संपूर्ण पाचन का शोधन करती है और साथ ही साथ यह अतिरिक्त पित्त, कफ, विष को दूर करती है तथा शरीर के प्राकृतिक संतुलन को वापस लाती है।
- नियमित रूप से नेति क्रिया करने पर कान, नासिका एवं कंठ क्षेत्र से गंदगी निकालने की प्रणाली ठीक से काम करती है तथा यह सर्दी एवं कफ, एलर्जिक राइनिटिस, ज्वर, टॉन्सिलाइटिस आदि दूर करने में सहायक होती है। इससे अवसाद, माइग्रेन, मिर्गी एवं उन्माद में यह लाभदायक होती है।
- त्राटक नेत्रों की पेशियों, एकाग्रता तथा मेमोरी के लिए लाभप्रद होती है। इसका सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव मस्तिष्क पर होता है। रीना जैन
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