पाँच क्लेश क्या हैं ?
पंच क्लेश या पाँच क्लेश , महृषि पतंजलि विरचित – योगसूत्र – नामक पुस्तक में वर्णित है। इसके द्वितीय पाद , जिसे “साधना पाद “भी कहते हैं के सूत्र 3 के अनुसार-
|| ‘अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः’ || 3
- अर्थात
- अविद्या
- अस्मिता
- राग
- द्वेष
- अभिनिवेश
ये पाँच क्लेश हैं।
1.अविद्या – यह क्लेश अन्य सभी क्लेशों की जननी है। इसलिए इसकी स्थिति अन्य सभी क्लेशों में भी होती है। बुद्धि की निम्नलिखित सभी गतियॉ अविद्या नामक क्लेश की ही जन्मदात्री है-
अविद्या का स्वरूप बताते हुए सूत्रकार ने लिखा है।
|| ‘अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या’ ||
अविद्या अनन्त भेदों वाली है किन्तु उपर्युक्त सूत्र के आधार पर मूलतः ये चार प्रकार की होती है –
- अनित्य में नित्यबुद्धि: समस्त संसार को, जो अनित्य है, उसे नित्य समझना।
- अशुचि मे शुचिज्ञानरूप अविद्याः कफ, पित्त, रक्त, मल तथा मूत्र से युक्त अपवित्र शरीर को परम पवित्र समझना।
- अनात्म में आत्मबुद्धि: हिंसा, अपराध तथा पापादि अशुद्धिओं से परिपूर्ण अन्तःकरण को शुद्ध समझना।
- दुःख मे सुख: अत्यन्त दुखद विषय भोगों को सुखद समझना।
2.अस्मिता – जैसा कि सूत्रकार ने लिखा है – ||’दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवाऽस्मिता’ ||
अर्थात् दृक्शक्ति रूप पुरूष तथा दर्शन शक्ति रूप बुद्धि की जो, अभेद न होने पर भी, अभेद जैसी प्रतीत होती है, वह अस्मिता नामक द्वितीय क्लेश होता है।इसका अर्थ है ‘मैं’ हॅू का अहंकारपूर्ण भाव। मैं सुखी हॅू, मैं दुखी हू आदि अहंकार को कहते हैं। बुद्धि दर्शन शक्ति है। यह समस्त प्रपंच दिखलाने का साधन है, अतएव वह भोग्य है तथा चेतन पुरुष भोक्ता है। दोनों एक दूसरे से नितान्त भिन्न हैं। दोनों को अभिन्न समझना ही अस्मिता नामक क्लेश है। इसी प्रकार दुख-सुख भी भोग्य और इनका भोक्ता भी चेतन पुरुष है। इन्द्रियादि को भोक्ता मानने से उनमें ममत्व तथा अहमत्व उत्पन्न होते हैं।
3.राग – राग का लक्षण बताते हुए सूत्रकार लिखते हैं – || ‘सुखानुशयी रागः’ ||
अर्थात् सुखभोग के अनन्तर चित्त में रहने वाली जो अभिलाषा है वह ’राग’ कहा जाता है। एक बार सुख भोग लेने के पश्चात उसे पुनः भोगने की अभिलाषा राग कहलाती है। प्रथम बार के भोग से जो सुख प्राप्त होता है, उसकी बार-बार स्मृति होती है तथा उसे पुनः-पुनः भोगने की इच्छा होती है। फलतः स्त्री, पुत्र, ऐश्वर्य, भोग आदि को प्राप्त करने हेतु मन में जो लोभ, तृष्णा आदि उत्पन्न होते है, उसे ही राग क्लेश कहा जाता है।
4.द्वेष – सूत्रकार द्वेष के विषय में लिखते हैं – || ‘दुःखानुशयी द्वेषः’ ||
अर्थात् दुःख का अनुवर्ती क्लेश ’द्वेष’ (संज्ञक) होता है। राग के संस्कार दृढ़ हो जाने पर जिस किसी के भी द्वारा उस राग से सम्बन्धित सुख-साधन प्राप्ति में बाधा पहुचती है, उसके प्रति द्वेष की भावना उत्पन्न होती है। इस क्लेश की उत्पत्ति भी राग से ही होती है। दुख के अनुभव के बाद दुख की स्मृति में उसके साधनभूत शत्रु आदि में जो प्रतिशोध लेने की इच्छा या क्रोध उत्पन्न होता है, उसे द्वेष कहते है।
5.अभिनिवेश – अभिनिवेश का मूल द्वेष होता है। ‘अभिनिवेश’ के विषय में पतंजलि जी लिखते हैं – || ‘स्वरसवाही विदुषोऽपि तथारूढोऽभिनिवेशः’ ||
प्राणिमात्र में जीवन के प्रति मोह होता है। वह हमेशा जीवित रहना चाहता है। मनुष्य जन्म लेने के बाद, जब तक मृत्यु नहीं हो जाती, जीवित अवस्था में रहता है।
इस अवस्था में बिना मृत्यु को प्राप्त हुए अर्थात मृत्यु के अनुभव के बिना भी वह इससे भयभीत होता है। क्यों? मृत्यु के पूर्व अनुभव के बिना उसकी स्मृति और स्मृतिजन्य भय या त्रास कैसे हो सकता है? अतएव यह मान्य है कि यह भय पूर्वजन्मों की वासना से जन्य है।
यदि यह माना जाय कि भविष्य में घटने वाली मृत्यु की घटना के अनुमान से इसका भय होता है तो छोट-छोटे शिशुओं में यह नहीं होना चाहिए, जबकि होता है। यही नहीं, मानव प्राणी के अतिरिक्त कीट-पतंगों में भी मृत्युत्रास होता है।
क्लेश के कारण
सांसारिक भौतिक विषयो के उपभोग काल में साधारण पुरूष सुखानुभूति तो करते है किन्तु उनके प्रतिकूल रूप दुःखानुभूति की कल्पना नहीं कर पाते है जबकि योगी जन दोनों स्थितियों से भलीभाँति परिचित होते हैं इसी बात की पुष्टि सूत्रकार के निम्नलिखित सूत्र से होती है-
।।परिणामतापसंस्कार दुःखैर्गुणवृत्ति विरोधाच्च दुःखमेव सर्वं विवेकिनः ।।
अर्थात् परिणामजन्यदुःख, तापजन्यदुःख तथा संस्कारजन्य के कारण एवं गुणवृत्ति विरोध के कारण विवेकी के लिए सभी फल दुःख रूप ही होते हैं। कहने का आशय है कि विषय-सुख इसलिए दुःखरूप होते हैं क्योंकि उनमें परिणाम दुःख, ताप दुःख एवं संस्कार – दुःख मिश्रित रहते हैं।
क्लेश निवारणोपाय
पूर्वोक्त में अविद्यादि पंचक्लेश क्लेश के कारण तथा अवस्थाओं का उल्लेख किया गया है उपर्युक्त विवेचना से यही निष्कर्ष निकलता है कि पूवोक्त सभी क्लेशों में अविद्या निहित है। अतः अविद्या का अभाव ही क्लेश निवारण का उपाय भी है। आचार्य पतंजलि जी क्लेश निवारण के लिए योग को ही सर्वोत्तम साधन बताते हैं। उन्होंने स्पष्ट रूप से लिखा है – ‘तपश्चाध्यायेश्वरप्रणिधानि क्रियायोग’ और यह क्रिया योग ही समाधि की भावना के लिए तथा क्लेशो को क्षीण करने के लिए एक श्रेष्ठ साधन है। यथोक्तम् -’समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च’ व्यासदेव ने स्पष्ट रूप से लिखा है – ’स ह्यासेव्यमानः समाधिम्भावयति क्लेशांश्च प्रतनूकरोति।’ अर्थात् अच्छी प्रकार से सेवन किया गया तप, स्वाध्याय तथा ईश्वर प्रणिधानरूप ’क्रियायोग’ ’समाधि’ की उत्पत्ति करता है और क्लेशों को सूक्ष्म अर्थात् दुर्बल बनाता है। क्रियायोग सर्वप्रथम क्लेशों को ’तनु’ करता है अर्थात् क्रियायोग अविद्यादि क्लेशों को शुष्क काष्ठ की भाँति शक्तिहीन बना देता है। परिणामतः प्रसंख्यान अग्नि उसे दग्धबीज की भाँति फिर उसे बन्ध्य बना देता है। इस सम्बन्ध में सूत्रकार ने लिखा है कि – ‘योगाड.गानुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः’ । अर्थात् योग के अंगों का सफल अभ्यास करने से अशुद्धि का क्षय होने पर विवेकख्यात्युदय पर्यन्त ज्ञान का प्रकाश होता है। कहने का आशय है कि यम नियम आसन प्राणायाम आदि योग के आठ अंगों के अनुष्ठान से अविद्यादि क्लेश तथा शुक्ल-कृष्ण आदि कर्मरूप अशुद्धि के समाप्त हो जाने पर, विवेक ज्ञान के उदय होने तक यथार्थ ज्ञान की अभिव्यक्ति होती है। विपर्ययात्मिका अशुद्धि का क्षय होने पर यथार्थज्ञान का आविर्भाव होता है, जैसे-जैसे योग साधनों का अनुष्ठान (अभ्यास) किया जाता है वैसे-वैसे विपर्ययरूपिणी अशुद्धि धूमिल पड़ती जाती है। फिर जैसे-जैसे विपर्ययरूपिणी अशुद्धि क्षीण होती जाती है, वैसे – वैसे अशुद्धि क्षय के अनुपातानुसार ज्ञान का प्रकाश क्रमशः बढ़ता जाता है। ज्ञान के प्रकाश का यह वर्धन विवेक ख्याति की पराकाष्ठा को प्राप्त करता है। इस प्रकार क्रिया योग तथा अष्टांगयोग के निरन्तर अभ्यास के द्वारा अविद्यादि पंच क्लेशों का निवारण किया जा सकता है।
रीना जैन
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